पद्मश्री अवॉर्ड देकर PM ने मुझे गलत साबित किया: दिल्ली से फोन आया तो खुशी के मारे कई दिन मैं सोया ही नहीं: शाह रशिद अहमद क़ादरी

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मैं शाह रशीद अहमद कादरी, कर्नाटक के बीदर का रहने वाला हूं। इसी साल 25 जनवरी की सुबह दिल्ली से फोन आया कि आपको पद्मश्री के लिए चुना गया है। मुझसे कहा गया कि इसकी जानकारी गोपनीय रखिएगा। शाम में ऑफिशियली घोषणा की जाएगी। मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा था। मैंने पत्नी को बताया और दोनों रोने लगे। शाम में इसकी घोषणा भी हो गई.

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उसी दिन बीदर के कलेक्टर का फोन आया कि आपको पद्मश्री मिला है। हमारे पास लिस्ट आई है आप कल सुबह नेहरू स्टेडियम आइए। अगले दिन मैं स्टेडियम पहुंचा। वहां मुझे सम्मानित किया गया। उसके बाद तो मुझसे मिलने और बधाई देने वाले लोगों की लाइन लग गई। मुझे इतनी खुशी हुई कि कई-कई दिन सो ही नहीं पाया। पूरी रात करवटें बदलते रहता था.

बीदर, गुलबर्गा, कोपल, बीजापुर इन इलाकों में 74 साल बाद किसी को पद्मश्री मिला था। मेरे घर में तो शादी जैसा उत्सव था। कोई मुझे स्कूल में बुला रहा था, तो कोई कॉलेज में तो कोई कहीं और। दिनभर फोन बजते रहता था.

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4 अप्रैल को मैं दिल्ली अवॉर्ड लेने राष्ट्रपति भवन पहुंचा। मेरा नाम पुकारा गया। मैंने प्रधानमंत्री मोदी से हाथ मिलाया और अवॉर्ड लेकर बैठ गया। कार्यक्रम के बाद प्रधानमंत्री हम सभी से बारी-बारी से मिले। उस वक्त मेरे दिल में बार-बार यह बात आ रही थी कि मैं उनसे बता दूं कि मैं उनके बारे में पहले क्या सोचता था.

प्रधानमंत्री जब मेरे पास पहुंचे, तो मैंने कहा मैं पांच साल से लगातार आवेदन कर रहा था और फिर बंद कर दिया। आपकी सरकार में मैंने आवेदन ही नहीं किया। मुझे लगा मैं मुसलमान हूं और मुझे पद्मश्री नहीं मिल सकता है, लेकिन आपने मुझे गलत साबित कर दिया। बस फिर क्या था मेरी इस बात पर राजनीति शुरू हो गई.

यहां तक कि मेरा बीदर आने का हवाई टिकट कैंसिल कर दिया गया। मुझे टीवी स्टूडियो में बैठा दिया गया। मुझे लगा कि मैंने तो सहज स्वभाव में बोला था यह क्या हो गया। मैंने उनसे कहा कि आप लोग मेरे बारे में बात करो, मेरे काम के बारे में बात करो, पर हर किसी को राजनीति सूझ रही थी।

बीदर आने के बाद भाजपा के नेता मेरे घर पहुंचे। मुझे बधाई मिली। बाकी लोग भी बधाई देने आए, लेकिन मेरी कम्युनिटी का कोई बधाई देने नहीं आया। इससे मुझे बहुत दुख हुआ। जो लोग पहले घर आते थे, उन्होंने घर आना बंद कर दिया। मुझसे बातचीत बंद कर दी.

अब मैं अपनी जर्नी की कहानी बताता हूं… मैं चार- भाई बहन हूं। बीदरी आर्ट हमारा खानदानी काम है। दादा जी भी बीदरी आर्ट का काम करते थे और पिता जी भी, लेकिन इसमें बहुत कमाई नहीं होती थी। इसलिए पिता जी नहीं चाहते थे कि मैं यह काम करूं।

करूं।

वे मुझे बीदरी आर्ट सिखाते भी नहीं थे। कभी-कभी मैं उनके पास बैठकर उनका काम देखने लगता था, तो मुझे वहां से जाने को बोल देते थे। उनका कहना था कि इस आर्ट में कुछ नहीं रखा है। पढ़ाई-लिखाई करो, नौकरी करो।

पिता जी की डांट के बाद भी मैं यह काम सिखता था। शुरुआत से ही मेरी इसमें दिलचस्पी थी। स्कूल से आने के बाद मैं उनके पास बैठ जाता था। वो कहते हैं न कि मछली के बच्चे को तैरना सिखाया नहीं जाता। मेरे साथ भी वैसा ही हुआ। रगों में बीदरी आर्ट था, तो देख-देख कर ही प्रैक्टिस करने लगा.

कुछ दिन तक तो पिता जी को मुझ पर गुस्सा आया, फिर उन्होंने मुझे डांटना छोड़ दिया। 1970 में दसवीं करने के बाद मैं पूरी तरह से इस काम में जुट गया। मैंने भाइयों को भी इस काम से जोड़ दिया। मां और बहन पहले से यह काम कर रही थीं। पिता का हाथ बंटाती थीं.

उन दिनों एक लड़का मेरे घर आता-जाता था। उसके माता-पिता नहीं थे। अक्सर वह अपने साथ होने वाली ज्यादती की कहानियां मुझे सुनाता था। मैंने उससे कहा कि तुमने 10वीं कर ली है। अब आगे पढ़ाई करो और कोई अच्छी नौकरी करो। यहां रोज-रोज आकर गप करने से कुछ होना नहीं है.

उसने कहा कि मेरा मन पढ़ने में नहीं लगता। एक दिन मैंने कहा कि चलो मैं भी तुम्हारा साथ दूंगा। तब पढ़ाई छोड़े हुए मुझे 10 साल हो चुके थे। मैंने एडमिशन लिया और उसे पढ़ाई के लिए प्रेरित करने लगा। इस वजह से उसका मन पढ़ाई में लगने लगा.

12वीं के बाद उसे कोलकाता की एक फैक्ट्री अच्छी नौकरी मिल गई। वह नौकरी करने चला गया। मुझे काफी खुशी हुई कि उसे कामयाबी मिल गई, पर कई साल बीत जाने के बाद भी जब उसने मुझे संपर्क नहीं किया, मुझसे मिलने नहीं आया, तो मुझे दुख हुआ.

मैं सोचने लगा कि कैसा इंसान है, कामयाब हो गया तो मुझे ही भूल गया। उसके लिए क्या-क्या नहीं किया मैंने। इससे मेरा मनोबल काफी हद तक डाउन हुआ। फिर मैंने खुद को उबारा और पूरी ताकत से काम में जुट गया। बीदरी आर्ट तब तक लोकल लेवल पर ही सीमित था। मैंने सोचा कि इसे आगे बढ़ाया जाए। कर्नाटक के बाहर ले जाया जाए.

मैं यह भी देखना चाहता था कि लोग इस काम को कितना पसंद करते हैं। इसलिए मैंने एक कंपनी में नौकरी शुरू कर दी, ताकि मुझे प्रोफेशनल ट्रेनिंग भी मिल जाए। मेरा काम और महीन हो जाए। तब मुझे 50 रुपए महीने सैलरी मिलती थी. शुरुआत में बीदर आर्ट से अच्छी कमाई नहीं होती थी। इसलिए मैंने नौकरी शुरू कर दी। तब मुझे 50 रुपए हर महीने मिलते थे. अस्सी के दशक की बात है। नौकरी के साथ मैं खुद के प्रोडक्ट भी बनाता था। फिर उसे मार्केट में जाकर बेचता था । धीरे-धीरे मैंने दूसरे शहरों में भी अपने प्रोडक्ट की सप्लाई करने लगा। इससे ठीक-ठाक कमाई होने लगी। इलाके में मेरी पहचान भी बन गई थी। 1984 में मुझे पहला स्टेट अवॉर्ड मिला। इससे मुझे काफी हिम्मत मिली.

1987 की बात है। अखबार में एक इश्तिहार निकला कि भारतीय काश्तकारों को अमेरिका के म्यूजियम ऑफ साइंस ले जाया जाएगा। इसमें चयन के लिए हैदराबाद के सालार जंग म्यूजियम में सभी को अपने प्रोडक्ट बनाकर दिखाने थे। मैंने फॉर्म अप्लाई कर दिया और तय तारीख पर म्यूजियम चला गया. मैंने देखा कि ज्यादातर काश्तकार सूट-बूट पहनकर आए हैं। वे लोग हाई-फाई लग रहे थे। मैं अपने साथ सिर्फ मोल्ड्स लेकर गया था, जबकि बाकी कलाकार अपने प्रोडक्ट लेकर पहुंचे थे। मैंने इस पर आपत्ति भी जाहिर की, लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा. इसके बाद मैं अपने कपड़े उताकर, धोती- बनियान में काम करने बैठ गया। मैंने एक पाउडर बॉक्स और एक प्लेट बनाई, लेकिन अधूरी। उसे पूरा करने का मन ही नहीं किया। मैंने उसपर अपना नाम लिखकर दे दिया। साथ में स्टेट अवॉर्डी भी लिख दिया। फिर मैं बीदर आ गया और अपने काम में जुट गया. एक दिन अचानक ख्याल आया कि उस इवेंट के नतीजे आए कि नहीं। पता करने पर मालूम हुआ कि इवेंट ऑर्गेनाइज करवाने वालों का ऑफिस कोलकाता में है। तब कोलकाता में मुझे अपने काम से भी जाना था। मैंने ट्रेन पकड़ी और कोलकाता के लिए निकल गया। मैंने उनके ऑफिस जाकर पूछा कि उस अवॉर्ड का क्या हुआ? नतीजे आए कि नहीं?

वहां के अधिकारियों ने बताया कि इसकी सूचना डाक के माध्यम से ही विजेताओं के घर भेजी जाएगी। मुझे लगा ये लोग मजाक कर रहे हैं मेरे साथ। मैं कोलकाता से बीदर वापस आ गया। जब घर आया तो देखा कि डाक से एक पत्र आया हुआ था। उसमें लिखा था कि आपका सिलेक्शन हो गया है। आपको अमेरिका जाना है.

मेरी धड़कनें बढ़ गईं। मेरे पास न तो पासपोर्ट था और न मैंने कभी जहाज देखा था। मुझे डर भी लग रहा था कि दूसरे देश में कैसे जाऊंगा। कहीं रास्ते में मेरी जान तो नहीं चली जाएगी ऊपर से गिरकर । फिर तय किया कि जो होगा देखा जाएगा। एक दिन सबको मरना ही है.

सिलेक्शन लेटर के जरिए मेरा पासपोर्ट जल्दी ही बन गया। फिर वो दिन भी आ गया जब मुझे जहाज से अमेरिका जाना था। एयरपोर्ट पहुंचा तो मेरी सांस फूलने लगी। जैसे-तैसे करके खुद को समझाया और जहाज में बैठा। हम कुल 125 लोग जहाज में थे। हर प्रदेश से कुछ न कुछ कारीगर थे। एक तरह से पूरा भारत उसमें मौजूद था.

वहां हम सभी को भाषा समझाने के लिए एक-एक आदमी दिया गया था। मैं पालथी मारकर घंटों अपना काम करता था। इस पर वहां के लोगों को सबसे ज्यादा ताज्जुब होता था। हर कोई मुझसे यही पूछता था कि आप ऐसे आराम से कैसे बैठते हैं। आपका पैर नहीं दर्द करता। उनमें से कई लोग मेरी तरह बैठने की कोशिश भी करते थे, लेकिन वे नहीं बैठ

सोमवार को हमारी छुट्टी होती थी। उस दिन वे लोग हमें घुमाने ले जाते थे। वहां हर रात किसी न किसी भारतीय के घर भोजन की व्यवस्था होती थी। बहुत शानदार मेजबानी करते थे वहां के लोग। कला के लिए इतना सम्मान और इज्जत मैंने और कहीं नहीं देखा। वे लोग गर्व महसूस करते थे कि हमने भारतीय कलाकारों को खाना खिलाया.

हालांकि 15 दिन बाद घर की याद आने लगी। देश के लोगों की याद आने लगी। आखिर परदेश तो परदेश ही होता है। खैरे जैसे-तैसे हमने चार महीने वहां गुजारे। ढेर सारे प्रोडक्ट बनाए। इसके बाद वहां से हमारी विदाई हुई। विदाई के वक्त हम लोग भावुक हो गए थे। हमारे साथ-साथ वहां के गोरे लोग भी भावुक थे। इतने दिनों में उनका हमसे लगाव हो गया था.

भारत लौटने के बाद मुझे नेशनल अवॉर्ड मिला। इसके बाद अवॉर्ड मिलने का सिलसिला शुरू हो गया। मुझे हर कुछ दिन पर कोई न कोई अवॉर्ड मिलता था। इतने अवॉर्ड मिले कि मुझे उनकी संख्या भी याद नहीं.

फिर 2023 का वो साल आया जब मुझे पद्मश्री मिला। अब मैं गरीब लोगों को बीदर आर्ट की ट्रेनिंग देता हूं, ताकि वे आत्मनिर्भर बन सकें। मेरे आर्ट के ऊपर 5 छात्र पीएचडी भी कर रहे हैं। यह बीदर आर्ट के लिए गर्व की बात है.

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