कोरबा/मकर संक्रांति का त्यौहार तिथि वाचक न होकर अयन-वाचक है । इस दिन सूर्य का मकर राशि में संक्रमण होता है । सूर्यभ्रमण के कारण होनेवाले अंतर की पूर्ति करने हेतु प्रत्येक अस्सी (८०) वर्ष में संक्रांति का दिन एक दिन आगे बढ जाता है । साधारणतः मकर संक्रांति १४ जनवरी को होती है । २०२४ में मकर संक्रांति १५ जनवरी को है । सक्रांति को देवता माना गया है । ऐसी कथा प्रचलित है कि संक्रांति ने संकरासुर दानव का वध किया । किंक्रांति यह संक्रांति का अगला दिन है । इस दिन देवी ने किंकरासुर का वध किया था ।
तमिळनाडु में इसे ‘पोंगल’ कहा जाता है । सिंधी लोग इस पर्व को ‘तिरमौरी’ कहते हैं । यही त्यौहार गुजरात और उत्तराखंड में ‘उत्तरायण’ नाम से भी जाना जाता है । हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब में ‘माघी’, असम में ‘भोगाली बिहु’ के नाम से मनाया जाता है । कश्मीर घाटी में इसे ‘शिशुर सेंक्रात’ कहां जाता है । उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार में यह उत्सव ‘खिचडी’ पर्व के नाम से भी जाना जाता है । पश्चिम बंगाल में इसे ‘पौष संक्रान्ति’, तो कर्नाटक में ‘मकर संक्रमण’ कहते है । पंजाब में यह उत्सव ‘लोहडी’ नाम से भी मनाया जाता है ।
मकर संक्रांति का महत्त्व
ऐसा माना जाता है कि इस दिन भगवान सूर्य अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उनके घर जाते हैं । क्योंकि शनिदेव मकर राशि के स्वामी हैं, अत: इस दिन को मकर संक्रान्ति के नाम से जाना जाता है ।
इस दिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक वातावरण अधिक चैतन्यमय होने से साधना करनेवाले को इस चैतन्य का लाभ हाेता है । कर्क संक्रांति से मकर संक्रांति तक के काल को दक्षिणायन कहते है । उत्तरायण में मृत्यु हुए व्यक्ति की अपेक्षा दक्षिणायन में मृत्यु हुए व्यक्ति की दक्षिण (यम) लोक में जाने की संभावना अधिक होती है ।
यहां पर हमें ध्यान में यह लेना है की, भारत में सभी स्थानों पर यह उत्सव मनाया जाता है । जिससे हिन्दु धर्म का महत्व भी ध्यान में आता है । संस्कृति के कारण एकता साध्य होती है । देश तो केवल भौगोलिक सीमाएं है, पर संस्कृति के कारण वह राष्ट्र का रूप धारण कर भिन्न भाषा और भौगोलिक प्रदेश के लोगों को भी एक धागे में कैसे पिरोता है, यह हमें इससे ध्यान में आता है । इसलिए त्योहारों का एक अनन्य साधारण महत्त्व है । इससे भी यह स्पष्ट होता है की, भारत में भाषा, राज्य भिन्न हो, तो भी एक संस्कृति -एक राष्ट्र है। इस कारण भारत कभी एक राष्ट्र नही था, इस आरोप का मिथ्या रूप भी ध्यान में आता है ।
मकर संक्रांति के पर्वकाल में दान का महत्त्व !
मकर संक्रांति से रथसप्तमी तक का काल पर्वकाल होता है । इस पर्वकाल में किया गया दान एवं पुण्यकर्म विशेष फलप्रद होता है । धर्मशास्त्र के अनुसार इस दिन दान, जप और धार्मिक अनुष्ठानों का बहुत महत्व होता है । इस दिन दिया गया दान पुनर्जन्म के बाद सौ गुना प्राप्त होता है । सनातन संस्था के आध्यात्मिक प्रसार के कार्य हेतु धन के रूप में दान करें –
दान योग्य वस्तुएं (किन वस्तुओं का दान करना चाहिए ?)
‘नए बर्तन, वस्त्र, अन्न, तिल, तिलपात्र, गुड, गाय, घोडा, स्वर्ण अथवा भूमिका यथाशक्ति दान करें । इस दिन सुहागिनें दान करती हैं । कुछ पदार्थ वे कुमारिकाओं से दान करवाती हैं और उन्हें तिलगुड देती हैं ।’ सुहागिनें जो हल्दी-कुमकुम का दान देती हैं, उसे ‘उपायन देना’ कहते हैं ।
उपायन देने का महत्त्व
‘उपायन देना’ अर्थात तन, मन एवं धन से दूसरे जीव में विद्यमान देवत्व की शरण में जाना । संक्रांति-काल साधना के लिए पोषक होता है । अतएव इस काल में दिए जानेवाले उपायन से देवता की कृपा होती है और जीव को इच्छित फलप्राप्ति होती है ।
उपयान में क्या न दें ?
आजकल स्टील के बर्तन, प्लास्टिक की वस्तुओं जैसी अधार्मिक सामग्री उपायन के रूप में देने की अनुचित प्रथा है । ये असात्त्विक उपयान देने के कारण, उपयान लेनेवाला और देनेवाला, दोनों व्यक्तियों के बीच लेन-देन बढता है।
मकर संक्रांति के पर्व में सुहागन को सात्त्विक भेंट देने के सूक्ष्म-स्तरीय लाभ दर्शानेवाला चित्र
इस अवसर पर दी जानेवाली भेंट सात्त्विक (उदा. आध्यात्मिक ग्रंथ, सात्त्विक अगरबत्ती, कर्पूर, उबटन इत्यादि) होनी चाहिए । किन्तु वर्तमान में असात्त्विक वस्तुएं (उदा. प्लास्टिक का डिब्बा, सौंदर्य प्रसाधन इत्यादि ) दी जाती हैं । सात्त्विक वस्तुओं से व्यक्ति में ज्ञानशक्ति (प्रज्ञाशक्ति) और भक्ति जागृत होती हैं, जबकि असात्त्विक वस्तुओं में मायावी स्पंदनों की मात्रा अधिक होने से व्यक्ति की आसक्ति बढती हैं । सात्त्विक वस्तुएं भेंट करते समय उद्देश्य शुद्ध और प्रेमभाव अधिक होने के कारण निरपेक्षता आती हैं । इससे लेन-देन निर्मित नहीं होता । इसके विपरीत, असात्त्विक वस्तुएं भेंट करते समय अपेक्षा, आसक्ति की मात्रा अधिक होने के कारण दोनों के बीच लेन-देन निर्मित होता हैं ।
मकर संक्रांति के काल में तीर्थस्नान करने पर महापुण्य मिलना
मकर संक्रांति पर सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक पुण्यकाल रहता है । इस काल में तीर्थस्नान का विशेष महत्त्व हैं । गंगा, यमुना, गोदावरी, कृष्णा एवं कावेरी नदियों के किनारे स्थित क्षेत्र में स्नान करनेवाले को महापुण्य का लाभ मिलता है ।
मकर संक्रांति पर तिल का उपयोग
तिल में सत्त्वतरंगें ग्रहण करने की क्षमता अधिक होती है । इसलिए तिलगुड का सेवन करने से अंतःशुद्धि होती है और साधना अच्छी होने हेतु सहायता होती हैं । तिल के दानों में घर्षण होने से सात्त्विकता का आदान-प्रदान होता है । श्राद्ध में तिल का उपयोग करने से असुर इत्यादि श्राद्ध में विघ्न नहीं डालते ।
मकर संक्रांति के दिन तिल का तेल एवं उबटन शरीर पर लगाना, तिल-मिश्रित जल से स्नान, तिल-मिश्रित जल पीना, तिल-होम करना, तिल-दान करना, इन छह पद्धतियों से तिल का उपयोग करनेवालों के सर्व पाप नष्ट होते हैं ।
सर्दी के दिनों में आनेवाली मकर संक्रांति पर तिल खाने से लाभ होता है ।
तिल की विशेषताएं दर्शानेवाला सूक्ष्म-चित्र
मकर संक्रांति के दिन मटकी का महत्त्व
मटकियों को हलदी-कुमकुम से स्पर्शित उंगलियां लगाकर धागा बांधते हैं । मटकियों के भीतर गाजर, बेर, गन्ने के टुकडे, मूंगफली, रुई, काले चने, तिलगुड, हलदी-कुमकुम आदि भरते हैं । रंगोली सजाकर पीढे पर पांच मटकियां रख पूजा करते हैं । तीन मटकियां सुहागिनों को उपायन देते हैं, एक मटकी तुलसी को एवं एक अपने लिए रखते हैं ।’
एक सौभाग्यवती स्त्री का मकर संक्रांति के दिन दूसरी सौभाग्यवती स्त्री को उपायन (भेंट) देकर उसकी गोद भरना अर्थात दूसरी स्त्री में विद्यमान देवी-तत्त्व का पूजन कर तन, मन और धन से उसकी शरण में जाना ।
भीष्माचार्य का मृत्युशैया पर ५८ दिनों तक जीवित रहना
भीष्म पितामह को कौन नहीं जानता । प्रसिद्ध महाभारत युद्ध की कालावधि में भीष्म पितामह ने अपना देह त्याग ने के लिए मकर संक्रान्ति का ही चयन किया था । महाभारत युद्ध में अर्जुन के बाणों के शैय्या पर कई दिनों तक पितामह भीष्म लेटे रहे और उन्होंने मृत्यू के लिए उत्तरायण की प्रतीक्षा की । महामहिम भीष्म उत्तरायण और मकर संक्रांति के महत्त्व को जानते थे और इसी लिए उन्होंने अपनी इच्छामृत्यु द्वारा यह दिन अपनी मृत्यु के लिए निश्चित किया । मकर संक्रांति के शुभ दिन पर उन्होंने मानव शरीर का त्याग किया ।
मकर संक्राति के दिन काला वस्त्र परिधान न करें !
मकरसं क्रांति के दिन छोटे बालक तथा सुवासिनी काला वस्त्र परिधान करते हैं; किंतु हिन्दु धर्म में काला रंग अशुभ माना जाता है तथा अध्यात्म के अनुसार काला रंग वातावरण के तमोगुणी स्पंदन आकृष्ट करता है । अतः इस रंग के वस्त्र परिधान करने से तमोगुणी स्पंदन आकृष्ट होते हैं । उसी कारण व्यक्ति को कष्ट हो सकते हैं । ‘मकर सक्रांति के दिन काला वस्त्र परिधान करें अथवा परिधान कर सकते है है’, इस सूत्र को किसी भी धर्मग्रंथ का आधार न होने के कारण उस दिन काला वस्त्र परिधान न करें ।
मकरसंक्रांति का साधना की दृष्टि से महत्त्व
इस दिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक वातावरण अधिक चैतन्यमय होता है । साधना करनेवाले को इस चैतन्य का लाभ होता है । इस दिन ब्रह्मांड की चंद्रनाडी कार्यरत होती है । इसलिए, वातावरण में रज-सत्त्व तरंगों की मात्रा बढती है । अतः मकर संक्रांति काल को साधना-उपासना के लिए बहुत अनुकुल बताया गया है । और यहां यह भी ध्यान में आता है की, ऋषि-मुनियों को ग्रहों की गति का यथायोग्य आकलन था । आज वैज्ञानिक उपकरणों से उसकी प्रमाणिकता भी स्पष्ट हो रही है । ऋषि-मुनियों ने ग्रहों की इस गति का व्यक्ति और वातावरण पर होनेवाले परिणामोंका आकलन कर विभिन्न त्योहारोंके माध्यम से धर्माचरण की ऐसी कृतियां बतायी, जिससे सभी को लाभ हो पाएं और इन ग्रहोंके भ्रमण को भी सभी समझ पाएं । सनातन संस्कृति की यह विशेषता हमें यहां पर ध्यान में लेनी चाहिए ।
कैसे मनाई जाती है देश-विदेश में मकर संक्रांति ?
संक्रांति यह त्यौहार भारत के साथ ही विदेशों में भी मनाया जाता है । बांग्लादेश में इस त्यौहार को ‘शंक्रेन’ (Shakrain) और ‘पौष संक्रान्ति’ के नाम से मनाया जाता है ।
नेपाल में मकर संक्रांति को ‘माघे-संक्रांति’, ‘सूर्योत्तरायण’ और थारू समुदाय में ‘माघी’ कहा जाता है । वह भिन्न-भिन्न रीति-रिवाजों द्वारा भक्ति और उत्साह से मनाया जाता है । इस दिन नेपाल में सार्वजनिक अवकाश होता है । यह पर्व थारू समुदाय का प्रमुख त्यौहार है । अन्य समुदाय के लोग भी तीर्थस्थल में स्नान कर दान-पुण्य करते हैं । मकर संक्रांति के दिन किसान अच्छी फसल होने पर भगवान का धन्यवाद करते हैं और अपनी कृपा दृष्टी बनाए रखने की प्रार्थना करते है । इसके साथ ही तिल, घी, शर्करा (चिनी) और कन्दमूल खाकर यह पर्व मनाते हैं ।
थाईलैंड में अप्रैल में यह पर्व मनाया जाता है । वहां पर इस पर्व को ‘सॉन्कर्ण’ के नाम से जानते हैं । यहां की संस्कृति भारतीय संस्कृति से भिन्न है । कहां जाता है कि थाईलैंड में प्रत्येक राजा की अपनी विशेष पतंग होती थी, जिसे जाडे के मौसम में भिक्षु और पुरोहित देश में शांति और खुशहाली की आशा में उडाते थे ।
म्यांमार में भी अप्रैल में यह पर्व ‘थिनज्ञान’ के नाम से मनाया जाता है । म्यांमार में यह पर्व ३-४ दिन तक चलता है । माना जाता है कि यहां पर यह पर्व नए साल के आने की खुशी में मनाया जाता है ।
श्रीलंका में मकर संक्रांति मनाते की पद्धति भारतीय संस्कृति से थोडी भिन्न है । यहां पर इस पर्व को ‘उजाहवर थिरुनल’ नाम से जाना जाता है । तमिलनाडु के लोग यहां पर रहते हैं, इसलिए श्रीलंका में इस पर्व को ‘पोंगल’ भी कहते हैं ।
कंबोडिया में मकर संक्रांति को ‘मोहा संगक्रान’ कहा जाता है । यहां भारतीय संस्कृति की झलक देखने को मिलती है । माना जाता है कि यहां के लोग नए वर्ष के आने और पूरा वर्ष खुशहाली बनी रहे, इसलिए ये पर्व हर्षोल्लास से मनाते हैं ।